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हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ के आयोजन का कोई औचित्य है या बस यूं ही चलता रहेगा यह सिलसिला? ‘CONTEST’

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हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ के आयोजन का कोई औचित्य है या बस यूं ही चलता रहेगा यह सिलसिला? ‘कांटेस्ट’ हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ का आयोजन काफी हद्द तक उचित है क्यूंकि बिना रंग-मुञ्च के भारत के लोगो को कोई भी बात गंभीर नहीं लगती है या यूँ कहें की उन् मुद्दों पर उनका ध्यान केन्द्रित होता ही नहीं है,तो जिस ढंग से हम समझ सकते हैं उसी तरीके को उपयोग में लाकर कुछ सन्देश इस समाज में फैलाएं…आज के दौड़ में स्वयम को प्रगति एवं विकास के मार्ग पर ले जाने के लिए लोग खुद के धर्म तक परिवर्तित कर डालते हैं तो फिर भाषा को भूलने में इन्हें तो पल भर नही देर नहीं लग सकती है…ऐसे में अगर ‘हिंदी’ भाषा को आगे बढाने के लिए ‘पखवारे’ की ज़रूरत पड़ती है तो निः संकोच इसका आयोजन करना चाहिए.मै तो यह भी कहूँगी की सिर्फ ‘हिंदी दिवस’ पर ही क्यूँ बल्कि ऐसे भी बिना खास दिन के विद्यालयों या दफ्तरों में इस मुद्दे पर चर्चे होते रहने चाहिए.आज के पीढ़ी के बच्चे क्या-कुछ नहीं जानते हैं,मगर अगर उन्हें बचपन से हीं इस बारे में अग्रसित कराते रहे की अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण करना कोई बुरी बात नहीं है मगर हाँ,यह बुरी बात अवश्य होगी की वे पूर्ण रूप से हिंदी को छोड़ कोई दूसरी भाषा पर धयान केन्द्रित करें.अपने ही भाषाबोलने के लिए या उनका मान सम्मान बढाने के लिए किसी ख़ास दिन का आयोजित होना कोई बड़ी बात नहीं है.उस दिन लोग मात्र कुछ पलों के लिए ‘हिंदी’ भाषा का गुणगान करेंगे पर आगे ही पल वे वापिस अपने दिखावे की दुनिया में पुर्णतः लौट जाएँगे.सब को खुद की पड़ी है,ऐसे में कौन ध्यान देगा ‘हिंदी’ भाषा पर लोग मतलबी होते जा रहे हैं. हम मनुष्य के रूप में पैदा हुए हैं तो मनुष्यता भी होनी चाहिए. हम तो स्वयम ‘स्वतंत्रता दिवस’ जैसे दिनों पर उन् वीरों को याद करते हैं वरना बाकी के ३६४ दिन हम खुद के ही बारे में सोचते हैं. यहाँ तक की यह भी भूल जाते हैं की हम मनुष्य हैं और उतर आते हैं अपनी हैवानियत पर.’हिंदी’ भाषा अपनी पहचान खो रही है पर कोई इसके बारे में नहीं सोचता है.जब किसी अपने करीब के रिश्तेदार को कोई खोता है तो काफी दर्द होता है \,वैसे ही जब यह राष्ट्र अपनी पहचान खो रहा है तो कुछ लोगों को कष्ट अवश्य हो रहा है मगर इतने अधिक जनसँख्या वाले देश में कुछ व्यक्तियों के आवाज़ उतनाहे से बस क्रांति ही छिड़ सकती है जिसका नतीजा कुछ नहीं निकलेगा.ए देशवासियों,क्यूँ सदियों से चल रहे परम्पराओं को तुम विदेशियों के परम्पराओं से जोड़ना चाहते हो.वो अपने संस्कारों में जी रहे हैं तो फिर हम क्यूँ उनकी नक़ल करने के होड़ में है…अपनी भाषा,अपनी सभ्यता-संस्कार को ऐसे मत समाप्त करो.छोड़ दो इन् विदेशियों के चाल-ढाल एवं दिखावे को…मत अपनाओ उनके भाषाओँ एवं रंग-रूप को,स्वयम की भाषा सर्वोत्तम है..हमारी सब्सी बड़ी पहचान है..सबसे बड़ी सबूत है हिंदुस्तानी होने का…क्यूँ घिर जाते हो दुसरो के चोचों में तुम?..मनुष्य हो तो अपने भावनाओ एवं लालसा पर धैर्य रखो एवं स्वयम की परिभाषा मत भूलो…ये मत भूलो की इन् दिनों को देखने के लिए ही वीरों ने अपने प्राण दिए they….अरे,उनकी ही क़द्र कर लो…अपने देश का खाते हो और दुसरो को अपनाते हो!!!….ऐसा क्यूँ है हमारे राष्ट्र में की अपनी ही भाषा को बोलने के लिए एवं उसे कायम रखने के लिए किसी ख़ास दिन का आयोजन करना पड़ता है….ऐसे दिन का बात क्यूँ जोहते हो!….धन्यवाद….

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